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प्रकृति एवं पर्यावरण चिंतन अंक-- 13 -आखिर हाथी जाए कहां-


संभाग ब्यूरो दुर्गा गुप्ता 

                  ढेर सारे प्रश्नों के बीच हमें और शासन तथा प्रशासनिक व्यवस्था को सोचना होगा कि हाथी भी हमारी इसी प्रकृति का हिस्सा है. उनके मार्ग में अवरोध बनकर नहीं सहायक बनकर आगे बढ़ना होगा अन्यथा यह प्रश्न यथावत जिंदा रहेगा कि "आखिर हाथी जाए कहां" जब हमने उनके घर और उनके रास्ते सब छीन लिए हैं।
                     भगवान शिव और गौरी पुत्र गणेश की कहानी ज्यादातर धार्मिक पुराणों के माध्यम से, बुजुर्गों के मुख से किस्से कहानी में या संतों के प्रवचन के माध्यम से आपने जरूर सुना होगा. धार्मिक ऐतिहासिक पक्ष शिव भक्त गजासुर का वरदान पूरा करने के लिए गौरी पुत्र गणेश का सिर त्रिशूल से काटने के बाद गजासूर को दिए गए वचन को पूरा करने के लिए हाथी का सिर जोड़ दिया था, लेकिन हाथी का सिर जोड़ने का दूसरा पक्ष यह भी है कि हाथी शाकाहारी जीव होते हुए सबसे ज्यादा बुद्धिमान प्राणी है जो समय के अनुसार अपने वंश एवं जीवन को बचाने के लिए हर संभव प्रयास करता है स्पर्श, दृष्टि, गंध, और ध्वनि के माध्यम से संवाद करने वाला यह प्राणी लंबी दूरी तक इंफ्रासाऊंड और भूकंप संचार का प्रयोग करते हैं. और दूर खड़े हाथियों के दल को अपने पास बुला लेते हैं. जो इसके मस्तिष्क की विशिष्ट मेघा को प्रदर्शित करता है. हाथी के बुद्धि पर ज्यादा शोध नहीं हुआ है लेकिन हाथियों का दल जिस मार्ग से गुजरता है उसे वर्षों तक नहीं भूलते और इसी मार्ग से आने वाली उनकी पीढ़ियों का दल भी अनुसरण करते हुए आवागमन करता है.
                             मानव संस्कृति में हाथी को धर्म साहित्य एवं सांस्कृतिक पन्नों में प्रतिष्ठित दर्जा दिया गया है. यही कारण है कि हमारी संस्कृत में हाथी को अलग-अलग रूपों में चित्रित किया गया है. हाथी पुरातन काल से ही राजाओं की शान कहे जाते रहे हैं, लेकिन आज हाथियों के सामने जीवन का संकट खड़ा हो गया है. अपनी आगामी पीढ़ी और वंश को बचाने का खतरा भी उनके सामने स्पष्ट दिखाई दे रहा है, यही कारण है कि अंतर्राष्ट्रीय प्राकृतिक संरक्षण संघ (I UCN) द्वारा एशियाई हाथियों को लुप्तप्रायः प्रजातियों की सूची में सूचीबद्ध कर दिया गया है. प्रश्न उठता है कि क्या इसके वंश की समाप्ति के दोषी हम बनने के लिए तैयार हैं. मानव जाति की शान और सम्मान
बनने वाले हाथी आज लुप्तप्रायः प्रजाति की परिधि में खड़े हैं और हम मूक दर्शक बनकर उनके वंश को बचाने के लिए कुछ नहीं कर पा रहे हैं.
                           "जियो और जीने दो" और सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया के सिद्धांत का पालन करने वाला यह हमारा भारत देश जहां हाथियों की पूजा कर युद्ध में उतरता था. विजय श्री की कामनाएं की जाती थी, वही हाथी आज मानव के विरोध में तोड़फोड़ एवं फसलों को नष्ट करने पर उतारू है. प्राकृतिक से जीवन प्राप्त करने वाला और प्रकृति की पूजा करने वाला हमारा आदिवासी समाज आज हाथी के आतंक से प्रभावित हो रहा है. हालकि शासन प्रशासन द्वारा भी हाथियों को बचाने के लिए प्रयास किये जा रहे हैं हाथियों की प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष हत्या पर कठोर दंड का प्रावधान किया गया है. वहीं हाथियों के आक्रमण से प्रभावित आदिवासियों को मुआवजा देने के नियम बनाए गए हैं, लेकिन हमारी शासन प्रशासन व्यवस्था इस बात की चिंता नहीं कर पा रहा है कि हाथियों के शरण स्थली एवं उनके आवागमन के मार्ग को प्रभावित नहीं किया जाए.उनके रास्ते खुले रखे जाएं.
                            हाथियों के उत्पात की बातें आजकल आम बात हो गई है. अभी ताजा समाचारों में गरियाबंद के जंगल मार्ग में हाथियों के उत्पादन से सैकड़ो एकड़ फसल बर्बाद हो गई है तथा लगभग 15 से ज्यादा गांव के निवासी दहशत में जी रहे हैं. कई स्थानों पर सुरक्षा की दृष्टि से ग्रामीण परिजन मकान के छत पर झोपड़ी बनाकर बच्चों को सुरक्षित बचाने की कोशिश कर रहे हैं. यह चिंतनीय मुद्दे हैं. इसी बीच की एक घटना यह भी चर्चा मे आई है कि रायगढ़ के पास जंगलों में बिजली करंट लगने से तीन हाथियों की मौत हो गई है. पर्यावरणीय प्रभाव की बदलती स्थितियों में स्वयं को बदल लेने वाला हाथी की औसत उम्र 50 से 70 वर्ष तक जिंदा रहता है मानव की औसत उम्र भी हाथियों के लगभग बराबर है. यह अलग प्रश्न है कि मानवहाथियों को प्रकृति द्वारा दिए गए 70 वर्षों का जीवन काल उसे जीने देगा या नहीं.
                          हाथी अपने स्थलों में स्वतंत्र विचरण करने वाले प्राणी है उन्हें कोई बाधा ना पहुंचाएं, तब वह मानव के विरुद्ध कोई उत्पात नहीं करेंगे. इसके लिए जरूरी है कि हाथियों की विचरण मार्ग के आवागमन रास्ते को हम अपने विकास की अंधी दौड़ के लिए ना रोकें. विकास के पैमाओं को आर्थिक समृद्धि से ना तौला जाए. बल्कि प्रकृति में पैदा होने वाले सभी जीव जंतुओं एवं वन की जैव विविधता का संरक्षण और सुख समृद्धि भी हमारी संयुक्त जिम्मेदारी है. यह हमारी सोच में शामिल होना चाहिए. यूरोपीय विकास को ही वास्तविक विकास का पैमाना मानना भारत जैसे देश के लिए उचित नहीं है.
                            ज्यादातर हाथी पानी के स्थलों के आसपास पाए जाते हैं और अपने स्वभाव के कारण पानी की उपलब्धता समाप्त होने पर यह अपना स्थान बदलकर पानी के दूसरे स्थान पर चले जाते हैं. हसदो अरण्य जंगलों के कटाव की चर्चा एक दशक से सुर्खियों में है. आश्चर्य हमें तब होता है जब अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के सामने हम प्रकृति को बचाकर चलने एवं पृथ्वी को बचाने का संकल्प लेकर हम विश्व के सामने वाहवाही प्राप्त करते हैं लेकिन इसका क्रियान्वयन नहीं कर पाते.
                            संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में 1972 से लगातार पचास वर्षों से प्रकृति एवं जैव विविधता को बचाने की कोशिश इसलिए कर रहे हैं हमारे राष्ट्रीय प्रतिनिधी इस सत्यता को स्वीकार कर चुके हैं कि -
                        "पृथ्वी है तब मानव है"
 इस सत्यता को स्वीकार करके ही हमारे प्रतिनिधि पर्यावरण एवं जैव विविधता के संरक्षण की चर्चा करते हैं. और इसे बचाने का संकल्प भी लेते हैं. लेकिन एशियाई क्षेत्र अपने छत्तीसगढ़ से जुड़े जैव विविधता के लिए चर्चित हसदो अरण्य के जंगलों को काटने के लिए नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ( NGT) के द्वारा लिए गए निर्णय में जैव विविधता को बचाने के लिए उत्खनन पर लगाए गए रोक जैसे निर्णय अपने अनुसार उलट फेर कर बदल लिए जाते हैं. आर्थिक विकास को धुरी मानकर आज ही हम प।थ्वु से सब कुछ ले लेना चाहते हैं. हम इसकी परवाह बिल्कुल नहीं करते कि इसी प्रकृति के वन एवं वन्य जीव के अस्तित्व का एक हिस्सा यह हाथी भी है. जिसका मुख्य विचरण का गलियारा हसदो अरण्य और हस्तदो नदी के बीच से गुजरता है. जिसकी परवाह नही करते हुए कोयला उत्खनन के लिए वन एवं वन्य प्राणियों की बलि दी जा रही है. विकास का यह चक्र हमें किस दिशा में ले जाएगा इस पर एक जागरूक नागरिक की तरह विचार करना हम सबका कर्तव्य है. विचार वह बीज है जो अंकुरित होकर समाधान का मार्ग तय करता है. विचारशील व्यक्ति एक देश के स्वस्थ नागरिक की पहचान है और स्वस्थ एवं संपन्न वैचारिक देश का आधार स्तंभ भी विचारशील व्यक्ति ही होता है. इसलिए शासन प्रशासन के साथ हमें भी विचार करना होगा. क्योंकि शासन प्रशासन और जनप्रतिनिधियों को चुनने का अधिकार हमें है और हम ही इसका निर्माण करते हैं.
                           ढेर सारे प्रश्नों के बीच हमें और शासन तथा प्रशासन को यह भी सोचना होगा कि हाथी भी हमारी इसी प्रकृति का हिस्सा है. अतः उनके मार्ग के अवरोध बनकर नहीं सहायक बनकर हम आगे बढ़े। अन्यथा यह प्रश्न यथावत इसी स्थिति में जिंदा रहेगा कि आखिर हाथी जाए कहां. जब हमने उनके घर और उनके सब रास्ते छीन लिए हैं तब उनके पास सिवाय बगावत करने के और कौन सा रास्ता खाली बचा है.
  बस इतना ही
 फिर मिलेंगे किसी अन्य चिंतन पर 
जय श्री राम

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