ग्रामीण भारत के औषधीय पौधे नामक शीर्षक से प्रशंसनीय पुस्तक। सतना। 7 दिसंबर। शनिवार।एकेएस विश्वविद्यालय के डॉ. सिकरवार की पुस्तक प्रकाशित हुई है। जो ग्रामीण भारत के औषधीय पौधे नामक शीर्षक से प्रशंसनीय पुस्तक है। पुस्तक में प्रत्येक पौधे का हिन्दी नाम, संस्कृत नाम,अंग्रेजी नाम, वानस्पतिक नाम, कुल, वितरण, वर्णन, प्राप्ति स्थान, फल तथा फूल आने का समय, एवं औषधीय उपयोग दिया गया है। जनमानस को पौधे पहचानने में कोई असुविधा न हो इसलिये प्रत्येक पौधे का रंगीन छायाचित्र दिया गया है। इस पुस्तक को साइंटिफिक पब्लिशर, जोधपुर ने प्रकाशित किया है। इसमें 250 पृष्ठ हैं ।
पुस्तक अमेजन तथा ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर भी उपजब्ध है। यह साधारण हिंदी भाषा में लिखी गई है और इसकी कीमत 3500 रुपये है जो 10 प्रतिसत डिस्काउन्ट पर 3150 रुपये में उपलब्ध है। डॉ. सिकरवार ने बताया कि भारत की लगभग 70 प्रतिशत आबादी ग्रामों में निवास करती है जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अपने आस-पास पाये जाने वाले स्थानीय पेड़-पौधें का स्वास्थ्योपचार हेतु उपयोग करती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी माना है कि विश्व के विकासशील देशों की लगभग 80 प्रतिशत आबादी प्राथमिक स्वास्थ्योपचार हेतु पेड़ पौधों पर निर्भर है। परन्तु विगत कुछ दशकों से आधुनिक चिकित्सा पद्धति के अत्यधिक प्रचलन व बढ़ते प्रभाव से परंपरागत चिकित्सा पद्धति के प्रति लोगों का रुझान बहुत कम हो गया था। लेकिन आधुनिक दवाएं अधिक महंगी एवं इनका स्वास्थ्य पर हानिकारक दुष्प्रभाव होने के कारण आज भारत ही नहीं बल्कि विश्व के सभी विकसित व विकासशील देश यह मानने लगे हैं कि आजीवन स्वास्थ्य की अवधरणा को केवल भारतीय परंपरागत चिकित्सा पद्धति ही साकार रूप दे सकती है, अन्य पद्धतियाँ नहीं। क्योंकि इसके सेवन से शरीर पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता और नया रोग पैदा नहीं होता। जैसाकि विश्व के प्रथम शल्य शास्त्री आचार्य सुश्रुत ने कहा है-
या हयुदीर्णम शमयति नान्यं व्याधिं करोति च।
सा क्रिया न तु व्याधिं हरत्यनयमुदीरयेत।।
आज प्रत्येक फार्मास्यूटिकल, आयुर्वेदिक कम्पनियाँ तथा शोध संस्थान पौधों से विकसित आधुनिक औषधियों की खोज में लगे हैं। कुछ पौधों से आधुनिक दवाईयाँ विकसित भी की गई हैं जैसे इफेड्रा से इफेड्रिन, सर्पगंधा से रिसर्पीन, किवांच से एल. डोपा, सदाबहार से विनक्रिस्टीन तथा विनब्लास्टीन, अफीम से मोर्फीन तथा कोडीन, आर्टीमीसिया से आर्टीमीसीन, आरोग्यपच्या से जीवनीय इत्यादि।
हमारे पूर्वजों ने निरोग शरीर को सभी सुखों की खान बताया है और यह निरोग शरीर हमारी परंपरागत चिकित्सा पद्धति द्वारा ही सम्भव है। विगत कुछ दशकों से ऐसा देखा गया है कि आधुनिक औषधियों के सेवन से कई दुष्प्रभाव सामने आये हैं। आधुनिक औषधि से रोग समूल नष्ट नहीं होता बल्कि उसे दबा दिया जाता है जिसके कारण उसके अनेक हानिकारक प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगते हैं, जबकि परंपरागत चिकित्सा पद्धति में प्रयुक्त होने वाले स्थानीय पेड़- पौधों से धीरे- धीरे ही सही पर किसी भी रोग या व्याधि का समूल नाश होता है। ये पेड़-पौधे सरलता से उपलब्ध, ताजे तथा हानिकारक प्रभावों से मुक्त होते हैं । यह घरों तथा गांव के आस-पास सहजता से उपलब्ध हो जाते हैं, परन्तु जनमानस को प्रायः इन पौधों के औषधीय उपयोगों की जानकारी नहीं होती है। महात्मा गाँधी जी ने कहा था जिस गांव में जो वनस्पति उत्पन्न होती हैं उसकी औषधि बनाना और यह औषधि किस रोग में काम आती है यह सब ग्रामवासियों को सिखा देना चाहिए। विश्वविद्यालय प्रबंधन ने डॉ. सिकरवार को शुभकामनाएं दी हैं।
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